यही कुछ बारह बरस का है।
रोज सुनता है वो स्कूल की घंटियां,
बच्चों के कहकहे,
ऊंची आवाजों में पाठ,
वो सारी प्रार्थनाएं उसको ज़ुबानी याद है।
बड़ी हसरत से तकता है वो उस पाठशाला को,
जो उसके पास होकर भी कभी जद में नहीं होती,
कुछ बाप का डर रोक लेता है उसे घर पे,
कुछ लाचार मां का चेहरा कि घर कैसे चलेगा,
दो छोटे भाई बहनों का सूखा हुआ ढांचा,
उम्मीदें लील जाता है उसके स्कूल जाने की,
कहने को तो गली भर का फासला है
पर उस एक गली में न जाने कितने समन्दर है।
हाथ जिनकी उंगलियों में पेन्सिल होनी थी,
अब छाले दिखाई देते हैं ,
कान जिनकी लोरियां सुनने की उमर थी,
उन्हें सुनाई देते हैं किस्से फसादों के,
सांसों में कोयले की राख के टुकड़े
सीने में धूल होता है, गुबार होता है,
आंखों में कालिख का आलम है इस कदर,
कि रोशनी का दीदार भी दुश्वार होता है
उम्र भी पकने लगी है अब उसकी,
उसके घावों की तरह,
कोई ख़रोंच लग जाए तो
कुछ बचपन सा रिसता है।
थोड़ा समझदार हो चला है वक्त के चलते,
अब जिद नहीं करता कभी काॅपी किताबों की,
चुपचाप बैठा एक सुलगती भट्टी के आगे,
जलाये जाता है लकड़ियां अपने सूखे ख्वाबों की,
हां कभी जाने अनजाने जो पड़ जाती है नज़र,
बैग टांगें,स्कूल जाते बच्चों की तरफ,
एक ठंडी कसक भीतर तलक को बींध जाती है,
पर उसने ये हुनर भी वक्त रहते सीख लिया है,
वो अब सपने नहीं लेता,उसे बस नींद आती है।
उम्र भी पकने लगी है अब उसकी,
उसके घावों की तरह,
कोई ख़रोंच लग जाए तो
कुछ बचपन सा रिसता है।
कवि परिचय :
भुवनेश राजस्थान के एक छोटे से शहर सीकर से आते है तथा जिंदगी की सच्चाइयों को कविताओं के जरिए उकेरना पसंद करते है। खुली आंखों से ख्वाब देखने के हिमायती भुवनेश की अधिकांश कविताएं जीवन के छोटे- बड़े पहलुओं को उजागर करती हैं।
We find lots of learning after reading this very useful article .
ReplyDeleteयह कविता मुझे कुछ कुछ गुरु रंधावा के इस गाने से संबंधित लगी। क्या आप थोड़ा इसे relate कर दिया रहे हैं या मेरा ही दिमाग कुछ ऐसा है।
ReplyDeleteFirst time reading, much appreciate it
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