इस दफे जब मैं
गाँव की चौहद्दी से निकला
वो पीपल का पेड़ मेरे साथ निकल आया
सूखी टहनियों को समेटे
बामुश्किल लंगड़ाता हुआ
कभी जिसकी छाँव में सारी दोपहरी
गिलहरियों के संग भागा, खाया
पत्तियों से छनकर आती धूप में... जिया
यह पीपल यूँ एक दिन
सूखकर निकाला जायेगा गाँव से ...
ये कैसे हो गया ?
सारा गाँव समेटने वाला एक दिन
चंद बगूलों और लंगूरों से हार जाएगा
ये कैसे हो गया ?
इस दफे जब मैं
गाँव की चौहद्दी से निकला
दो तीखी बेरियाँ मेरे पैरों पे गिरीं
अभी गए साल की बात है
इसी पीपल का पुराना साथी था
ठंढी छाँव वाला नीम
झूले खेलने में जिसकी टहनियों से
वैसी ही तीखी बेरियाँ टपकती थी
और बच्चे चुनकर खाते थे
जिसे मीठे होठों से
वो गिरा दिया गया, काटकर ...
मैदान को बड़ा किया गया
स्कूल के बच्चों के खेलने के लिए
पर अबकी बरसी जेठ की आग में
मैदान धूप में
बच्चों की राह तकता रहा ...
इस दफे जब मैं
गाँव की चौहद्दी से निकला
दो आँखें मेरी पीठ पर गड़ी रहीं
दूर जहाँ तक नज़र पहुँच सकती थी
पीठ पर एक
सरसराहट सी चलती रही
और चौहद्दी की मोड़ मुड़ते ही
वो आँखें दुआ बन गयीं
कई पहर बीत गए हैं
नीम, पीपल और दुआओं के साथ
मैं शहर जीतने आ तो पहुंचा हूँ
पर उलझन गहरी अब भी है
ये छनकर आती धूप दरीचे की है
या मेरे साथ आये पीपल की ?
ये ठंढक प्रशीतन यन्त्र की है
या ठंढी छाँव वाले नीम की ?
और सबसे अहम सवाल कि
ये सफलता मेरे पसीने की है ?
या मेरी माँ की दुआओं का असर
पर मेरे हिस्से की धूप..
मेरे हिस्से की धूप... सिर्फ़ मेरी है
Image Credit: Street With Women, Vasily Kandisky, Expressionism