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पतलूनों का भी मज़हब होता है। अमीरों के पतलून मुस्लिम अथवा ईसाई मत पर चलते हैं... जो एक बार जीवन काल पूरा हुआ तो सीधे कचरे के दोज़ख में, पुनर्जन्म की की कोई गुंजाइश नहीं। मध्यमवर्ग के पतलून हिन्दू अथवा बौद्ध सिद्धांतों के अनुयायी होते हैं। पहनावे के रूप में जीवन पूरा हुआ तो सब्जी के झोले के रूप में नया कलेवर पाते हैं। झोला मृतप्राय हुआ तो पौंछे की योनि धारण करता है। पौंछा का शरीर भी जब घुल जाये तो साइकल की सीट साफ करने वाली गुदड़ी बन जाता है... और जब इन सभी योनियों से गुजरकर अपने पाप-पुण्य गंवा देता है तो मुक्त होकर बुद्ध द्वारा बताई गयी ‘शून्यावस्था’ को प्राप्त हो जाता है। शिक्षा विभाग के बाबू सिंघल जी का होली पर भी पहना जा चुका पुराना पतलून चिंतामग्न सी श्रीमती सिंघल की सिलाई मशीन के नीचे अपने नए जीवन चक्र में प्रवेश कर रहा था। पास में उनका 10 वर्षीय सुपुत्र पंकज बैठा हुआ होमवर्क कर रहा था। बाहर नवरात्रे के पंडाल से जयकारों की कर्णभेदी चिंघाड़ें पूरे घर को गुंजा रही थी।
ये उस जमाने की बात है जब मकान बनाना भागीरथ कृत्य नहीं हुआ करता था और भले लोग लंबे-चौड़े मकान बनाते थे और पुण्य कार्य जानकर औने-पौने दामों पर किरायेदार रखा करते थे। सिंघल जी ने मकान के ऊपरी तल्ले के अपने निवास में प्रवेश कर धरमपत्नि को किराएदारों से वसूला किराया दिया और हाथ मुंह धोने गुसलखाने में चले गए। सिंघलजी मुह हाथ धोकर बाहर निकले तो श्रीमती जी को प्रश्नवाचक मुद्रा में पाया।
“क्या हुआ?” सिंघल बाबू अपने स्वाभाविक नरम स्वर में बोले
“आज फिर परमार के बेटों ने मिल के पंकज के साथ मार पिटाई की”
“हाँ, तो क्या हुआ? अब बच्चों की धींगामुश्ती में क्या दखल देना?”
“बात धींगामुश्ती की नहीं है...”
“तो फिर क्या बात है?”
“बच्चे मार पिटाई करें तो ठीक है...पर परमार के तीनों ही बेटे इसको ‘अबे ओ बनिया के’ कहकर क्यूँ धमकाते हैं? आज मैं ऊपर से सुन रही थी... पंकज ने जब कहा कि वो तुमसे शिकायत करेगा तो अंदर से परमार की घरवाली निकल के आई और इससे बोली कि ‘कर देना जिससे शिकायत करनी है... ठाकुरों के लड़के हैं, बनियों के नहीं जो दब जाएँ’।‘ अब भला तुम बताओ बच्चों के बीच ऐसी बात करता है कोई? पहले ही कहा था, ठाकुरों के किराये पे घर मत दो” श्रीमती तड़प कर बोली।
“ अरे ये क्या बात हुई? संचित भी तो ठाकुर है... फिर भी कैसा गौ है...एक ऐब नहीं... बनियो के लड़कों में भी उस सा कोई भला है? बेचारे का एडिटर तरसा तरसा कर तनख़्वाह देता है, पर देखो महीने की पहली तारीख को किराया हाथ पर रख देता है। हाँ, परमार की घरवाली की बात ठीक नहीं लगी मुझे” सिंघल बाबू ने सहानभूति देकर बात को टालने की कोशिश की। पर आज श्रीमती भी इस बात को आसानी से आया-गया करने के विचार से नहीं थीं।
“ अरे तो मुझे क्या बोलते हैं? जाकर उसको समझाइए... और एक बात बताइये, ये किराया क्यूँ नहीं दे रहा है...आज सात महीने हो गए...”
“अच्छा मैं कर लूँगा बात”
“और अगर ना दिया इस महीने भी किराया तो खाली करने को बोल दीजिएगा?”
“और ऐसा भी क्या हुआ कि कुछ महीने किराया ना दे पाया तो घर से ही निकाल दे। भूल गयी पंकज को कंधे पे चढ़ाये घूमता था यही। ठाकुर जी ने इतना बड़ा मकान दिया है कि कुछ भले लोगों को बसाएँ, इसलिए नहीं कि कुछ महीने किराया ना मिले तो धौंस जमाएँ” सिंघल जी ने बोला...
ये उस जमाने की बात है जब मकान बनाना भागीरथ कृत्य नहीं हुआ करता था और भले लोग लंबे-चौड़े मकान बनाते थे और पुण्य कार्य जानकर औने-पौने दामों पर किरायेदार रखा करते थे। सिंघल जी ने मकान के ऊपरी तल्ले के अपने निवास में प्रवेश कर धरमपत्नि को किराएदारों से वसूला किराया दिया और हाथ मुंह धोने गुसलखाने में चले गए। सिंघलजी मुह हाथ धोकर बाहर निकले तो श्रीमती जी को प्रश्नवाचक मुद्रा में पाया।
“क्या हुआ?” सिंघल बाबू अपने स्वाभाविक नरम स्वर में बोले
“आज फिर परमार के बेटों ने मिल के पंकज के साथ मार पिटाई की”
“हाँ, तो क्या हुआ? अब बच्चों की धींगामुश्ती में क्या दखल देना?”
“बात धींगामुश्ती की नहीं है...”
“तो फिर क्या बात है?”
“बच्चे मार पिटाई करें तो ठीक है...पर परमार के तीनों ही बेटे इसको ‘अबे ओ बनिया के’ कहकर क्यूँ धमकाते हैं? आज मैं ऊपर से सुन रही थी... पंकज ने जब कहा कि वो तुमसे शिकायत करेगा तो अंदर से परमार की घरवाली निकल के आई और इससे बोली कि ‘कर देना जिससे शिकायत करनी है... ठाकुरों के लड़के हैं, बनियों के नहीं जो दब जाएँ’।‘ अब भला तुम बताओ बच्चों के बीच ऐसी बात करता है कोई? पहले ही कहा था, ठाकुरों के किराये पे घर मत दो” श्रीमती तड़प कर बोली।
“ अरे ये क्या बात हुई? संचित भी तो ठाकुर है... फिर भी कैसा गौ है...एक ऐब नहीं... बनियो के लड़कों में भी उस सा कोई भला है? बेचारे का एडिटर तरसा तरसा कर तनख़्वाह देता है, पर देखो महीने की पहली तारीख को किराया हाथ पर रख देता है। हाँ, परमार की घरवाली की बात ठीक नहीं लगी मुझे” सिंघल बाबू ने सहानभूति देकर बात को टालने की कोशिश की। पर आज श्रीमती भी इस बात को आसानी से आया-गया करने के विचार से नहीं थीं।
“ अरे तो मुझे क्या बोलते हैं? जाकर उसको समझाइए... और एक बात बताइये, ये किराया क्यूँ नहीं दे रहा है...आज सात महीने हो गए...”
“अच्छा मैं कर लूँगा बात”
“और अगर ना दिया इस महीने भी किराया तो खाली करने को बोल दीजिएगा?”
“और ऐसा भी क्या हुआ कि कुछ महीने किराया ना दे पाया तो घर से ही निकाल दे। भूल गयी पंकज को कंधे पे चढ़ाये घूमता था यही। ठाकुर जी ने इतना बड़ा मकान दिया है कि कुछ भले लोगों को बसाएँ, इसलिए नहीं कि कुछ महीने किराया ना मिले तो धौंस जमाएँ” सिंघल जी ने बोला...
पर वो ये भी जान गए कि अब अगर परमार ने किराया ना दिया तो श्रीमति जी उनको छोडने वाली नहीं हैं।
(2)
अक्तूबर 1987
-------------
हवा में गुलाबी सी ठंड घुलने लगी थी। कार्तिक का महीना था, जहाँ एक ओर दीवाली का रंगो-आब और रौनक हवा में शुमार थे तो दूसरी ओर किशोर कुमार की मृत्यु से भग्नहृदय हुए दिलजले युवक हर गली मुहल्ले में देसी असेंब्लेड औडियो सिस्टम पर ऊंची आवाज़ में किशोरदा के दर्द भरे गीत बजा रहे थे। सिंघल जी अपनी तंख्वाह अंटी में सम्हाले हुए सीढ़ियाँ चढ़ते हुए घर में पहुंचे।
“ चखिए तो ज़रा, मगद के लड्डू कैसे हैं?” श्रीमती जी ताज़े ताज़े बंधे हुए मगद* के चार लड्डू और पानी का गिलास लेकर आयीं, ठाकुरजी को भोग लगाए जाने के प्रतीक रूप में एक तुलसीदल लड्डू के ऊपर लगा हुआ था। पास ही पंकज माँ की ओर देखता हुआ खड़ा था, इस प्रतीक्षा में कि कब पापा लड्डू चखें और उसे भी खाने को मिले।
बनियों की स्त्रियाँ अद्वितीय रसोइयाँ होती हैं क्यूंकि उनके पुरुष जैसे स्वाद के पारखी इंसान भी धरती पर दूसरे नहीं होते। मुहल्ले कि ऐसी कोई शादी ना थी जिसमे सिंघल जी को अग्राशन (खाने का पहला ‘सेंपल’) परखने ना बुलाया गया हो। गुलाबजामुन की चाशनी पकी या नहीं, गुजियाँ कितनी खस्ता हुईं हैं, तरकारी में रंग उतरा है या नहीं, झोल एकरस हुआ या नहीं, सिंघल जी एक कौर में परख लेते थे। उनकी दी हुई राय पर मारवाड़ियों के हलवाई भी प्रतिवाद ना करते थे।
“बढ़िया हैं”
“क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?”
“हाँ ठीक है... ये तनख़्वाह रख दो...” श्रीमती जी को लिफाफा थमाते हुए सिंघल बाबू ने कहा।
“ये तो बस 12000 हैं... इस बार दीवाली बोनस नहीं मिला क्या?”
लेकिन सिंघल बाबू बजाय उत्तर देने के शून्य में घूरते रहे।
“क्या बात है?” श्रीमती जी ने आशंकित से स्वर में पूछा।
“वो... परमार...” सिंघल बाबू कहते कहते चुप हो गए। श्रीमती जी उनकी ओर देखती रहीं “परमार को दे दिये” सिंघल बाबू एक सांस में बोले जिस तरह कोई बालक एक घूंट में कड़वी दवाई की चम्मच पी जाता है।
“क्या?” श्रीमती जी को विश्वास नहीं हुआ। और वो सिंघल बाबू को चुपचाप एकटक देखती रहीं।
“उसके पास बोलने गया था किराया देने को पिछले हफ्ते... उसने कहा नहीं है। फिर आज फिर गया मांगने... तो उसने कहा कि 12000 रुपये दो”
“12000 रुपया? किस बात का?” श्रीमती जी को विश्वास नहीं हुआ।
“घर खाली करने का... कह रहा था कि कोई किराया नहीं देगा... अगर घर खाली करना है तो अभी के अभी 12000 रुपया दो”
“और तुम उससे दब गए? कचहरी में कितने दोस्त हैं तुम्हारे... मदनलाल बाबूजी से तो मिलते”
“कोई फायदा नहीं होगा... उसने एक बार कब्जा जमा लिया तो सालों साल मुकदमा चलेगा। और उसने ये भी कहा कि अगर... अगर मुकदमा किया तो हमारे पंकज को अगवाह करके चंबल में फेंक देगा” सिंघल बाबू ने गर्दन झुकाकर कहा।
“हा राम” श्रीमती जी का मुंह खुला रह गया और अनायास ही उन्होने नन्हें पंकज को भींच लिया। “कोई बात नहीं है... जो गया सो गया... करोड़ों रुपये न्योछावर मेरे नन्हे पर”
(2)
अक्तूबर 1987
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हवा में गुलाबी सी ठंड घुलने लगी थी। कार्तिक का महीना था, जहाँ एक ओर दीवाली का रंगो-आब और रौनक हवा में शुमार थे तो दूसरी ओर किशोर कुमार की मृत्यु से भग्नहृदय हुए दिलजले युवक हर गली मुहल्ले में देसी असेंब्लेड औडियो सिस्टम पर ऊंची आवाज़ में किशोरदा के दर्द भरे गीत बजा रहे थे। सिंघल जी अपनी तंख्वाह अंटी में सम्हाले हुए सीढ़ियाँ चढ़ते हुए घर में पहुंचे।
“ चखिए तो ज़रा, मगद के लड्डू कैसे हैं?” श्रीमती जी ताज़े ताज़े बंधे हुए मगद* के चार लड्डू और पानी का गिलास लेकर आयीं, ठाकुरजी को भोग लगाए जाने के प्रतीक रूप में एक तुलसीदल लड्डू के ऊपर लगा हुआ था। पास ही पंकज माँ की ओर देखता हुआ खड़ा था, इस प्रतीक्षा में कि कब पापा लड्डू चखें और उसे भी खाने को मिले।
बनियों की स्त्रियाँ अद्वितीय रसोइयाँ होती हैं क्यूंकि उनके पुरुष जैसे स्वाद के पारखी इंसान भी धरती पर दूसरे नहीं होते। मुहल्ले कि ऐसी कोई शादी ना थी जिसमे सिंघल जी को अग्राशन (खाने का पहला ‘सेंपल’) परखने ना बुलाया गया हो। गुलाबजामुन की चाशनी पकी या नहीं, गुजियाँ कितनी खस्ता हुईं हैं, तरकारी में रंग उतरा है या नहीं, झोल एकरस हुआ या नहीं, सिंघल जी एक कौर में परख लेते थे। उनकी दी हुई राय पर मारवाड़ियों के हलवाई भी प्रतिवाद ना करते थे।
“बढ़िया हैं”
“क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?”
“हाँ ठीक है... ये तनख़्वाह रख दो...” श्रीमती जी को लिफाफा थमाते हुए सिंघल बाबू ने कहा।
“ये तो बस 12000 हैं... इस बार दीवाली बोनस नहीं मिला क्या?”
लेकिन सिंघल बाबू बजाय उत्तर देने के शून्य में घूरते रहे।
“क्या बात है?” श्रीमती जी ने आशंकित से स्वर में पूछा।
“वो... परमार...” सिंघल बाबू कहते कहते चुप हो गए। श्रीमती जी उनकी ओर देखती रहीं “परमार को दे दिये” सिंघल बाबू एक सांस में बोले जिस तरह कोई बालक एक घूंट में कड़वी दवाई की चम्मच पी जाता है।
“क्या?” श्रीमती जी को विश्वास नहीं हुआ। और वो सिंघल बाबू को चुपचाप एकटक देखती रहीं।
“उसके पास बोलने गया था किराया देने को पिछले हफ्ते... उसने कहा नहीं है। फिर आज फिर गया मांगने... तो उसने कहा कि 12000 रुपये दो”
“12000 रुपया? किस बात का?” श्रीमती जी को विश्वास नहीं हुआ।
“घर खाली करने का... कह रहा था कि कोई किराया नहीं देगा... अगर घर खाली करना है तो अभी के अभी 12000 रुपया दो”
“और तुम उससे दब गए? कचहरी में कितने दोस्त हैं तुम्हारे... मदनलाल बाबूजी से तो मिलते”
“कोई फायदा नहीं होगा... उसने एक बार कब्जा जमा लिया तो सालों साल मुकदमा चलेगा। और उसने ये भी कहा कि अगर... अगर मुकदमा किया तो हमारे पंकज को अगवाह करके चंबल में फेंक देगा” सिंघल बाबू ने गर्दन झुकाकर कहा।
“हा राम” श्रीमती जी का मुंह खुला रह गया और अनायास ही उन्होने नन्हें पंकज को भींच लिया। “कोई बात नहीं है... जो गया सो गया... करोड़ों रुपये न्योछावर मेरे नन्हे पर”
इसके बाद घर में कोई एक शब्द नहीं बोला... खाना खाकर तीनों जन लेट गए।
“अरे अब चिंता छोड़ दीजिये... इतने से पैसों पे दुखी होने लायक कमजोर थोड़े ही हैं हम... पंकज बड़ा होकर लाखों कमाएगा” नन्हे पंकज के चेहरे पर क्षीण सी मुस्कान आ गयी।
“पूरे जिले में पढ़ने में मुझसे आगे कोई ना था... बाबूजी ये क्लर्क की ही नौकरी करवाने पे अड़ गए... अगर उन्होने थोड़ा साथ दिया होता और सिविल सर्विस को बैठने देते तो जाने आज क्या ही होते हम।“ सिंघल जी धीरे से सांस छोडकर बोले।
“पर चलो कोई बात नहीं... पंकज को पढ़ाएंगे हम... हमारा पंकज बड़ा होकर कलेक्टर बनेगा... फिर परमार जैसे सब गुंडों की धुलाई कर देगा” श्रीमती जी बेटे का माथा चूमते हुए बोली।
“अरे तुम भी क्या ओछी बातें करती हो? बेटे को कलेक्टर इसलिए बनाओगी कि वो परमार से लड़ सके। ये छोटी बातें ना सिखाओ इसे” सिंघल जी ने झिड़ककर कहा।
“अरे इसमें क्या ओछा है? बनियों का बेटा और कैसे ठाकुरों की बराबरी करेगा। जब हमारा नन्हा बड़ा होके कलेक्टर बनेगा तो सारे अन्याय का बदला लेगा और परमार के गले में हाथ डालके खींच लेगा सारा पैसा” श्रीमती जी बिना हतप्रभ हुए बोली।
सिंघल बाबू जान गए थे कि बोलने का कुछ फायदा नहीं है।
मकान की कोरों में बूंद बूंद रिस्ता हुआ पानी जब सीली हुई दरारों में जमे नन्हे पीपल की कौंपल को सींचता है तो किसी को अंदाजा नहीं होता की यही नन्हा सा पीपल पूरे नींव को खोखला कर घर की भीत गिरा सकता है। उसी तरह माता पिता की कही हुई छोटी छोटी बातें भी बाल मानसिकता को ऐसा प्रभावित करती हैं कि समूचे राष्ट्रों के विधान का निर्माण या नाश हो जाया करता है।
“अरे अब चिंता छोड़ दीजिये... इतने से पैसों पे दुखी होने लायक कमजोर थोड़े ही हैं हम... पंकज बड़ा होकर लाखों कमाएगा” नन्हे पंकज के चेहरे पर क्षीण सी मुस्कान आ गयी।
“पूरे जिले में पढ़ने में मुझसे आगे कोई ना था... बाबूजी ये क्लर्क की ही नौकरी करवाने पे अड़ गए... अगर उन्होने थोड़ा साथ दिया होता और सिविल सर्विस को बैठने देते तो जाने आज क्या ही होते हम।“ सिंघल जी धीरे से सांस छोडकर बोले।
“पर चलो कोई बात नहीं... पंकज को पढ़ाएंगे हम... हमारा पंकज बड़ा होकर कलेक्टर बनेगा... फिर परमार जैसे सब गुंडों की धुलाई कर देगा” श्रीमती जी बेटे का माथा चूमते हुए बोली।
“अरे तुम भी क्या ओछी बातें करती हो? बेटे को कलेक्टर इसलिए बनाओगी कि वो परमार से लड़ सके। ये छोटी बातें ना सिखाओ इसे” सिंघल जी ने झिड़ककर कहा।
“अरे इसमें क्या ओछा है? बनियों का बेटा और कैसे ठाकुरों की बराबरी करेगा। जब हमारा नन्हा बड़ा होके कलेक्टर बनेगा तो सारे अन्याय का बदला लेगा और परमार के गले में हाथ डालके खींच लेगा सारा पैसा” श्रीमती जी बिना हतप्रभ हुए बोली।
सिंघल बाबू जान गए थे कि बोलने का कुछ फायदा नहीं है।
मकान की कोरों में बूंद बूंद रिस्ता हुआ पानी जब सीली हुई दरारों में जमे नन्हे पीपल की कौंपल को सींचता है तो किसी को अंदाजा नहीं होता की यही नन्हा सा पीपल पूरे नींव को खोखला कर घर की भीत गिरा सकता है। उसी तरह माता पिता की कही हुई छोटी छोटी बातें भी बाल मानसिकता को ऐसा प्रभावित करती हैं कि समूचे राष्ट्रों के विधान का निर्माण या नाश हो जाया करता है।
श्रीमती जी के एक वाक्य ने नन्हे पंकज के चरित्र को बदल डाला था। अधिक प्रताड़ित मन में हिंसा और प्रतिशोध को संचित रखने की और उसे पोषित करने की क्षमता असीम होती है। महाभारत युद्ध का रक्त रंजन दुर्योधन के बाल मन की हिंसा और हीं भावना का ही प्राकट्य तो था। पंकज का बालमन भी माता के इस वाक्य में प्रतिशोध की संभावना पा गया था। मकान की दरारों में पनप रहे एक पीपल के पौधे ने नींव की ओर अपनी जड़ें बढ़ा दी थी।
(3)
जून 1998
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जून 1998
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बदले के इंतज़ार में बिताया हुआ वक़्त दिवास्वप्न की तरह होता है... 5 पल और 50 साल की अवधि एक सी मालूम होती है। पंकज के जीवन के पिछले 12 वर्ष भी धुएँ से उड़ गए थे। पंकज ने जब से माँ को गर्वान्वित स्वर में बोलते सुना था कि “जब हमारा नन्हा बड़ा होके कलेक्टर बनेगा तो सारे अन्याय का बदला लेगा”, उसका सारा जीवन अग्नि बन गया था... प्रकाश देती सुगंधित समिधाग्नि (हवन काष्ठ की आग) नहीं, भूसे की आग... हर पल तिल-तिल सुलगती हुई... लगातार धुआँ उगलकर सब कुछ जहरीला कर देने वाली। जब से परमार घर खाली करके गया पंकज का बचपन भी विदा हो गया। उसके जीवन का एक ही लक्ष्य था, आई॰ए॰एस॰ बनकर परमार से अपने पिता का बदला लेना। पंकज ने दिन रात एक कर दिया पढ़ाई में, उसके जीवन का कोई दूसरा रस ना था। परिणाम यह हुआ कि उसके जीवन में उसके बदले के अलावा कुछ भी ना था... ना बचपन का खेल... ना तरुणाई की मीठी भूलें और ना युवावस्था का देदीप्यमान उत्साह... बस प्रतिशोध की चाह ही जीवन का अवलंबन बन गयी थी। ऐसे नीरस शुष्क बालक के मित्र भी कहाँ से होते? ले देकर बस पड़ोस का एक लड़का था सुजय, जिसे लोग पंकज का मित्र मानते थे और पंकज जिसे मात्र पड़ोसी का लड़का।
यू॰पी॰एस॰सी॰ का इंटरव्यू हो चुके थे और बस रिजल्ट का इंतज़ार था। पंकज सूजय के साथ बैठा शतरंज खेल रहा था। टी॰वी॰ पर सेट मैक्स पर जनवरी में शुरू हुए कार्यक्रम सी॰आई॰डी॰ का एडवरटाइज़मेंट आ रहा था।
“अरे तेरा रिजल्ट कब आ रहा है?” सुजय ने पूछा
“अरे आ जाएगा। तुझे क्या करना है? तेरी बी॰ए॰ तो चल रही है ना?” पंकज ने चिढ़कर बोला
“अबे वो तो चल ही रही है पिछले 5 साल से... और चलने दो साली को” सुजय ने प्रसन्नतापूर्वक कहा।
“तुझे चिंता नहीं कि क्या होगा तेरा ज़िंदगी में”
“बिलकुल भी नहीं” सुजय ने कहा
“अबे तेरा कुछ नहीं हो पाएगा। तेरी जिंदगी ऐसी ही जाएगी”
“अबे मेरी ज़िंदगी बहुत मस्त जाएगी... Because I am vhery pojhitiv! अच्छा ये बता पिच्चर देखने चलेगा? ‘वीराना’ लगी है टॉकीज में... बहुत खतरनाक डरावनी धांसू फिलिम है... उसमें हीरोइन भी बहुत मस्त है...जासमीन”
तभी दरवाजे की घंटी बजी और सुजय की बात अधूरी रह गयी। पंकज खेल छोडकर दरवाजा खोलने गया। दरवाजा खोला...
सामने परमार खड़ा था…
पंकज ने सूजय को विदा कर दिया। परमार आमंत्रण की प्रतीक्षा किए बिना सर झुकाये हुए बैठक में आ गया।
(4)
बैठक में अचकचाया हुआ सा सन्नाटा पसरा हुआ था। सिंघल बाबू इधर उधर देख रहे थे, श्रीमती जी जलती आँखों से परमार को देखे जा रही थी, परमार की आँखें एकटक ज़मीन में गड़ी हुई थी और पंकज दीवार से टिककर खड़े हुए परमार के बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था।
परमार धीरे से अपनी कुर्सी से उठा, धीमे कदमों से चलते हुए सिंघल बाबू तक पहुंचा और सिंघल बाबू का हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़कर भूमि पर सर झुकाकर बैठ गया। उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। सिंघल बाबू बेचारे झेंपे से यूं ही बैठे रहे।
“बाबूजी! मुझे माफ कर दो... मुझसे भारी पाप हुआ” परमार रुदन रुद्ध कंठ से बोला।
“क्यूँ जब हमसे 12000 रुपया छीनकर लिया था, तब दुख नहीं हुआ था... अब नाटक करने आया है।“ श्रीमति जी गुस्से से कांपती हुई बोली।
परमार ने आँसू भरी हुई आँखों से श्रीमति जी को देखा और फिर से आँखें झुका लीं
“माता जी! मैं बुरा आदमी नहीं हूँ। मैंने वो सब मजबूरी में ही किया था” परमार ने कहा।
सिंघल बाबू और श्रीमति जी किंकर्तव्यविमूढ़ एक दूसरे को देख रहे थे।
“गाँव में बड़े भाइयों के साथ बंटवारा हुआ था। सबने नहर पास की जमीन अपने में बाँट ली। मुझे थोड़ी सा बंजर वाला हिस्सा थमा दिया। मैं अकेला पड़ गया... मेरे बच्चे भी छोटे थे। ज्यादा खुलकर विरोध किया तो पूरे गाँव के सामने मुझे पीटा। बाबूजी रॉम रोम टूटा जाता था अन्याय के भार तले। ना आगे कुछ दिखता था ना पीछे का कोई छोर था। दो ही रास्ते थे, या तो जो जमीन है उसे स्वीकार कर लूँ या बागी होकर बीहड़ में चला जाऊँ। पर जब भी बच्चों का मुंह देखता था... खुद को ही रुलाई आ जाती थी... बन्दूक उठाने का कलेजा नहीं हुआ... जैसे तैसे जमीन बेच बाच के शहर आ गया।“ परमार ने क्षण भर को रुक कर सिंघल बाबू को देखा, “यहाँ आकर आपके मकान में साल भर अच्छा बीता। लेकिन ठाकुर दूर गए हुए भाई की भी जड़ें खोदने से कहाँ बाज़ आते है। अभी कुछ रुपया बचा भी ना पाया था कि मँझले भाई ने मुकदमा दायर कर दिया।“
“अब किस चीज के लिये मुकदमा कर दिया अन्यायियों ने?” श्रीमति ने सदय स्वर में पूछा।
“माता जी! चंबल किनारे के ठाकुर फसल पकने के समय में झगड़े करते हैं और जब फसल से फारिग हो जाते हैं तो मुकदमे लड़ते हैं। मेरे भाई ने केस कर दिया कि उसे बिना बताए मैं खानदानी जमीन बेचकर खा गया। अब गाँव की पंचायत का किया हुआ बंटवारा था। ना पटवारी का निशान था और ना कानूनगो के दस्तखत। मैं शर्तिया मुकदमा हारता। भाई ने मुकदमा दाखिल ना करने के 12000 रुपए मांगे। कहाँ से लाता इतना पैसा? बस बाबूजी तभी मैंने गो हत्या से भी बड़ा पाप किया... आपसे पैसा छीनना पड़ा।“ परमार सकुचाकर जैसे जमीन में गड़ा जा रहा था।
“पर बाबूजी एक दिन भी ऐसा नहीं गया जिस दिन अपने किए पे ठाकुर जी के आगे रोया ना होऊँ। हर दिन इसी इंतज़ार में काटा कि कब आपके पैर पकड़ कर माफी माँगूँगा और आपका पैसा चुकाऊंगा।“ परमार का स्वर ईमानदारी से खनक रहा था। “बाबूजी ये लीजिये आपकी धरोहर...इसमे 11 साल का ब्याज भी जोड़ा है” परमार ने रुमाल में बंधी हुई गड्डियाँ सामने रख दी इससे पहले कि सिंघल बाबू मना करते, उसने दोनों हाथ जोड़ लिए- “बाबूजी, मेरी गलती पहाड़ से भी बड़ी है... और आपकी भलमनसाहत से कभी उऋण तो नहीं हो पाऊंगा पर ये पैसे आप ही कि अमानत हैं, ये तो आपको लेने ही होंगे।“ परमार ने खड़े होते हुए कहा।
“और हाँ बाबूजी, गांधी कॉलोनी में मकान बना किया अब मैंने, एकादशी को गृह प्रवेश है, फीता आप ही काटने आएंगे। और ये कुछ मगद के लड्डू भेजे हैं घरवाली ने.... पंकज बेटे जरूर खाना” परमार ने स्नेह से छलकती आँखों से पंकज को देखते हुए कहा और दरवाजे की ओर बढ़ गया।
(5)
दोपहर से शाम हो गयी थी पर पंकज दोपहर की घटना से अभी तक उबर ना पाया था। ना दुख था ना कोई उत्साह बस एक उदासीनता सी जकड़े हुई थी। बदला लेना और परमार को सजा दिलाना ही उसके जीवन का आधार था... वह आधार उसके कदमों के नीचे से हट गया था और समूचा व्यक्तित्व इस आघात से सुन्न हो गया था।
बाहर कहीं दूर से छन छन कर संगीत ध्वनि आ रही थी “घुँघरू की तरह... बजता ही रहा हूँ मैं...”
पंकज को भास भी नहीं हुआ और उसकी आँखों से बूंद बूंद आँसू गिरने लगे। व्यक्तित्व पर जमा हुआ सारा मल कण-कण कर धुलता जा रहा था। पंकज को एक-एक कर वो सारे क्षण याद आ रहे थे जिनकी उसने हत्या की थी, और वो भी किसलिए? बदले के लिए? अब पंकज का हृदय कलुष मुक्त हो चुका था... ना ही मन आईएएस बनने का जुनून बचा था और ना किसी से बदला लेने की चाह। अब उसका जीवन एक सुगंधित पुष्प हो चुका था जिसे बस वो चुपचाप से निर्माण की वेदी पर रखने जा रहा था**। पंकज उठा और परमार के दिये हुए लड्डूओं में से एक लड्डू उठा लिया जिसकी मिठास उसके अस्तित्व में घुल गयी।
* मगद = बेसन और सूजी को घी में भून कर लड्डू बांधने को तैयार किया हुआ माल।
** यह पंक्ति आचार्य नरेंद्र कोहली के उपन्यास ‘अभ्युदय’ से ग्रहीत है तथा आचार्य के प्रति अपना प्रेम व्यक्त करने के लिए ली गयी है।
*** पंकज असल में टीचर बनना चाहता था, और अब वो टीचर ही है। पंकज एक छोटे शहर में बच्चों को AIEEE और JEE के लिए Physics पढ़ाता है, एक ऐसे शहर में जहां पढ़ते हुए मेडिकल या इंजीनीयरिंग क्लीयर करने के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था। उसके यहाँ के स्टूडेंट्स ने दो बार स्टेट मेडिकल एक्जाम टॉप किया है। 100 से ऊपर स्टूडेंट्स इंजीनीयर बन चुके हैं। लेखक भी पंकज सर का छात्र रह चुका है।
यू॰पी॰एस॰सी॰ का इंटरव्यू हो चुके थे और बस रिजल्ट का इंतज़ार था। पंकज सूजय के साथ बैठा शतरंज खेल रहा था। टी॰वी॰ पर सेट मैक्स पर जनवरी में शुरू हुए कार्यक्रम सी॰आई॰डी॰ का एडवरटाइज़मेंट आ रहा था।
“अरे तेरा रिजल्ट कब आ रहा है?” सुजय ने पूछा
“अरे आ जाएगा। तुझे क्या करना है? तेरी बी॰ए॰ तो चल रही है ना?” पंकज ने चिढ़कर बोला
“अबे वो तो चल ही रही है पिछले 5 साल से... और चलने दो साली को” सुजय ने प्रसन्नतापूर्वक कहा।
“तुझे चिंता नहीं कि क्या होगा तेरा ज़िंदगी में”
“बिलकुल भी नहीं” सुजय ने कहा
“अबे तेरा कुछ नहीं हो पाएगा। तेरी जिंदगी ऐसी ही जाएगी”
“अबे मेरी ज़िंदगी बहुत मस्त जाएगी... Because I am vhery pojhitiv! अच्छा ये बता पिच्चर देखने चलेगा? ‘वीराना’ लगी है टॉकीज में... बहुत खतरनाक डरावनी धांसू फिलिम है... उसमें हीरोइन भी बहुत मस्त है...जासमीन”
तभी दरवाजे की घंटी बजी और सुजय की बात अधूरी रह गयी। पंकज खेल छोडकर दरवाजा खोलने गया। दरवाजा खोला...
सामने परमार खड़ा था…
पंकज ने सूजय को विदा कर दिया। परमार आमंत्रण की प्रतीक्षा किए बिना सर झुकाये हुए बैठक में आ गया।
(4)
बैठक में अचकचाया हुआ सा सन्नाटा पसरा हुआ था। सिंघल बाबू इधर उधर देख रहे थे, श्रीमती जी जलती आँखों से परमार को देखे जा रही थी, परमार की आँखें एकटक ज़मीन में गड़ी हुई थी और पंकज दीवार से टिककर खड़े हुए परमार के बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था।
परमार धीरे से अपनी कुर्सी से उठा, धीमे कदमों से चलते हुए सिंघल बाबू तक पहुंचा और सिंघल बाबू का हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़कर भूमि पर सर झुकाकर बैठ गया। उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। सिंघल बाबू बेचारे झेंपे से यूं ही बैठे रहे।
“बाबूजी! मुझे माफ कर दो... मुझसे भारी पाप हुआ” परमार रुदन रुद्ध कंठ से बोला।
“क्यूँ जब हमसे 12000 रुपया छीनकर लिया था, तब दुख नहीं हुआ था... अब नाटक करने आया है।“ श्रीमति जी गुस्से से कांपती हुई बोली।
परमार ने आँसू भरी हुई आँखों से श्रीमति जी को देखा और फिर से आँखें झुका लीं
“माता जी! मैं बुरा आदमी नहीं हूँ। मैंने वो सब मजबूरी में ही किया था” परमार ने कहा।
सिंघल बाबू और श्रीमति जी किंकर्तव्यविमूढ़ एक दूसरे को देख रहे थे।
“गाँव में बड़े भाइयों के साथ बंटवारा हुआ था। सबने नहर पास की जमीन अपने में बाँट ली। मुझे थोड़ी सा बंजर वाला हिस्सा थमा दिया। मैं अकेला पड़ गया... मेरे बच्चे भी छोटे थे। ज्यादा खुलकर विरोध किया तो पूरे गाँव के सामने मुझे पीटा। बाबूजी रॉम रोम टूटा जाता था अन्याय के भार तले। ना आगे कुछ दिखता था ना पीछे का कोई छोर था। दो ही रास्ते थे, या तो जो जमीन है उसे स्वीकार कर लूँ या बागी होकर बीहड़ में चला जाऊँ। पर जब भी बच्चों का मुंह देखता था... खुद को ही रुलाई आ जाती थी... बन्दूक उठाने का कलेजा नहीं हुआ... जैसे तैसे जमीन बेच बाच के शहर आ गया।“ परमार ने क्षण भर को रुक कर सिंघल बाबू को देखा, “यहाँ आकर आपके मकान में साल भर अच्छा बीता। लेकिन ठाकुर दूर गए हुए भाई की भी जड़ें खोदने से कहाँ बाज़ आते है। अभी कुछ रुपया बचा भी ना पाया था कि मँझले भाई ने मुकदमा दायर कर दिया।“
“अब किस चीज के लिये मुकदमा कर दिया अन्यायियों ने?” श्रीमति ने सदय स्वर में पूछा।
“माता जी! चंबल किनारे के ठाकुर फसल पकने के समय में झगड़े करते हैं और जब फसल से फारिग हो जाते हैं तो मुकदमे लड़ते हैं। मेरे भाई ने केस कर दिया कि उसे बिना बताए मैं खानदानी जमीन बेचकर खा गया। अब गाँव की पंचायत का किया हुआ बंटवारा था। ना पटवारी का निशान था और ना कानूनगो के दस्तखत। मैं शर्तिया मुकदमा हारता। भाई ने मुकदमा दाखिल ना करने के 12000 रुपए मांगे। कहाँ से लाता इतना पैसा? बस बाबूजी तभी मैंने गो हत्या से भी बड़ा पाप किया... आपसे पैसा छीनना पड़ा।“ परमार सकुचाकर जैसे जमीन में गड़ा जा रहा था।
“पर बाबूजी एक दिन भी ऐसा नहीं गया जिस दिन अपने किए पे ठाकुर जी के आगे रोया ना होऊँ। हर दिन इसी इंतज़ार में काटा कि कब आपके पैर पकड़ कर माफी माँगूँगा और आपका पैसा चुकाऊंगा।“ परमार का स्वर ईमानदारी से खनक रहा था। “बाबूजी ये लीजिये आपकी धरोहर...इसमे 11 साल का ब्याज भी जोड़ा है” परमार ने रुमाल में बंधी हुई गड्डियाँ सामने रख दी इससे पहले कि सिंघल बाबू मना करते, उसने दोनों हाथ जोड़ लिए- “बाबूजी, मेरी गलती पहाड़ से भी बड़ी है... और आपकी भलमनसाहत से कभी उऋण तो नहीं हो पाऊंगा पर ये पैसे आप ही कि अमानत हैं, ये तो आपको लेने ही होंगे।“ परमार ने खड़े होते हुए कहा।
“और हाँ बाबूजी, गांधी कॉलोनी में मकान बना किया अब मैंने, एकादशी को गृह प्रवेश है, फीता आप ही काटने आएंगे। और ये कुछ मगद के लड्डू भेजे हैं घरवाली ने.... पंकज बेटे जरूर खाना” परमार ने स्नेह से छलकती आँखों से पंकज को देखते हुए कहा और दरवाजे की ओर बढ़ गया।
(5)
दोपहर से शाम हो गयी थी पर पंकज दोपहर की घटना से अभी तक उबर ना पाया था। ना दुख था ना कोई उत्साह बस एक उदासीनता सी जकड़े हुई थी। बदला लेना और परमार को सजा दिलाना ही उसके जीवन का आधार था... वह आधार उसके कदमों के नीचे से हट गया था और समूचा व्यक्तित्व इस आघात से सुन्न हो गया था।
बाहर कहीं दूर से छन छन कर संगीत ध्वनि आ रही थी “घुँघरू की तरह... बजता ही रहा हूँ मैं...”
पंकज को भास भी नहीं हुआ और उसकी आँखों से बूंद बूंद आँसू गिरने लगे। व्यक्तित्व पर जमा हुआ सारा मल कण-कण कर धुलता जा रहा था। पंकज को एक-एक कर वो सारे क्षण याद आ रहे थे जिनकी उसने हत्या की थी, और वो भी किसलिए? बदले के लिए? अब पंकज का हृदय कलुष मुक्त हो चुका था... ना ही मन आईएएस बनने का जुनून बचा था और ना किसी से बदला लेने की चाह। अब उसका जीवन एक सुगंधित पुष्प हो चुका था जिसे बस वो चुपचाप से निर्माण की वेदी पर रखने जा रहा था**। पंकज उठा और परमार के दिये हुए लड्डूओं में से एक लड्डू उठा लिया जिसकी मिठास उसके अस्तित्व में घुल गयी।
* मगद = बेसन और सूजी को घी में भून कर लड्डू बांधने को तैयार किया हुआ माल।
** यह पंक्ति आचार्य नरेंद्र कोहली के उपन्यास ‘अभ्युदय’ से ग्रहीत है तथा आचार्य के प्रति अपना प्रेम व्यक्त करने के लिए ली गयी है।
*** पंकज असल में टीचर बनना चाहता था, और अब वो टीचर ही है। पंकज एक छोटे शहर में बच्चों को AIEEE और JEE के लिए Physics पढ़ाता है, एक ऐसे शहर में जहां पढ़ते हुए मेडिकल या इंजीनीयरिंग क्लीयर करने के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था। उसके यहाँ के स्टूडेंट्स ने दो बार स्टेट मेडिकल एक्जाम टॉप किया है। 100 से ऊपर स्टूडेंट्स इंजीनीयर बन चुके हैं। लेखक भी पंकज सर का छात्र रह चुका है।
Picture Credit: The Disinitegration of the Persistence of Memory, By Salvador Dali, Surrealism (src wikipedia)
[Stories of a Seeker are a series of posts by an author who wants to be known as "Seeker". From what we know, Seeker is a genuine and strong individual, who seeks answers to the conundrum of ethics and existence and prefers anonymity and unhindered solitude. Read more at Stories of a Seeker]
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