तुम विदा हुए धरा से
जीवन का सार गया |
पत्थर की मूरत से
मानो भगवान गया |
द्रवित हृदय,
हत-प्रद, भाव विहीन,
नियति के न्याय से
शून्य, अश्रु में लीन...
बिन सोचे समझे
जीवन से रंग निकाला |
लाल हरी चुनरी को
रीति ने सफेद कर डाला |
चूड़ी तोड़ी, बिंदिया छीनी,
माथे का सिंदूर मिटाया |
शादी के जोड़े को
गंगा में अर्पित करवाया |
मृत्यु ने बस काया छीनी,
नियमो ने निष्प्राण किया |
रीति, शास्त्र पुराणो ने
पीड़ा का अपमान किया |
जब अमर प्रेम हमारा,
ऐसे क्यूँ ढोंग रचाना ?
हां, जीने को जी नही करता
पर ऐसे नही शोक मानना...
काजल सी रातें होती
बिंदी दिन की दिशा दिखाती |
आँचल में उनकी यादें
चूड़ी गीत मिलन के गाती |
भाव तुम्हारा रंगों में जब
बेरंग क्यूँ ढल जाना ?
धर्म-अधर्म के पलड़ो से
रिश्तों का क्यूँ मोल लगाना ?
बातें हम दोनो की है फिर
जग को किसने अधिकार दिया ?
ऐसे धर्म-व्रत-मर्यादा को
जाओ मैने अस्वीकार किया...
रीति-रस्म को ठुकराया,
अर्थ-अनर्थ का भेद गया |
फिर से कोरे आँचल को
मैने सिंदूरी लाल किया...
फिर से कोरे आँचल को
मैने सिंदूरी लाल किया...
["मैने सिंदूरी लाल किया" लामया द्वारा लिखी "साँवले होठों वाली" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें saanwale hothon wali]
Picture credits: Widow, by Kathe Kollwitz style - Expressionism
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- साँवले होठों वाली: मैने सिंदूरी लाल किया
भावनाओं से सराबोर सुन्दर एवं प्रभावी शब्द
ReplyDeleteDhanyawaad. (on behalf of Lamya)
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