कुछ बंदे खुदा के होते
हैं और कुछ शैतान के, पर चम्बल वाणी दैनिक के संपादक मियां आजम अली पर दोनों ही
अपना हक़ जताते थे। आजम मियां खुदा को पसंद थे क्यूंकि उन्होने कभी किसी का एक पैसा
भी नहीं पचाया और शैतान इसलिए उनका कायल था कि आजम मियां ने हर देनदार को एक-एक
पैसा रुला-रुलाकर, महीनों मिन्नतें करा कराकर ही दिया था। बड़े ही मजहबी आदमी
माने जाते थे आजम मियां। कुछ साल पहले इनहोने अपनी ‘नातों’ (हज़रत
मुहम्मद की शान में लिखे गीत) की एक किताब निकाली थी, जो ताज़ियों
के दौरान मुसलमान पढ़ा करते थे। हालांकि कुछ लोग ये भी बताते हैं कि ये ‘नातें’ आजम मियां ने
किसी गरीब शायर से खरीद कर अपने नाम से छपवा लीं थी।
चम्बल वाणी में काम करने
वाले हिन्दी पत्रकार श्री संचित सिंह भी इन्हीं मज़हबी आजम मियां के सताये हुए गरीब लोगों में से एक
थे। आज पूरे तीन महीने हो गए पर
आजम साहब ने तनख्वाह देने का नाम नहीं लिया है। सूखे मुँह और थके
पैरों के साथ बत्तीस वर्षीय संचित सिंह ने घर में प्रवेश किया और धर्मपत्नी गौतमी
को लौकी थमाकर बिस्तर पर पाँव पसारकर बैठ गए। कमरे में ऊमस थी... और छोटे शहरों की
लाइट, वो भी किसी आवारा की तरह कभी भी रात-बिरात गायब हो जाती थी। कमरे के अंदर छन
छन कर आती गर्मियों की शाम संचित सिंह के अन्तर्मन के अवसाद की भांति पूरे कमरे
में पसरी हुई थी।
दूसरे कमरे से उनका ढाई साल का बेटा गिट्टू बैठक में आया और पिता को देख दोनों
हाथ फैलाये, डगमगाते पैरों से बढ़ता हुआ गोदी में चढ़ गया। बेटे को गोदी
में ले संचित सिंह भूख और साढ़े सात बजे तक ऑफिस में काम करने की थकान भूल गए।
तभी गौतमी ने कमरे में प्रवेश किया और बोली-
“पड़ोस वाले बाजपेयी जी कह रहे थे कि ट्रान्सफोर्मर जल गया है... सारी रात
बिजली नहीं आएगी। सवा आठ हो गए हैं। आप छत पर मच्छरदानी लगा लो, मैं भी तब तक
रोटियाँ सेक कर खाना लगा दूँगी”
“अच्छा... लेकिन सुनो, सब साथ में खाएँगे, छत पर ही...
यहाँ तो लगता है जैसे भट्टी लगी हुई है”
“पर फिर आपको ठंडी रोटियाँ....”
“अरे छोड़ो ना ठंडी-गरम... साथ में खाएँगे बस” संचित गौतमी की बात काटकर
मुसकुराते हुए बोले।
जब तक गौतमी खाना लेके आती, संचित ने छत पर जाकर मच्छरदानी तान दी। गौतमी ने दो थालियों
में धनिया पड़ी हुई, सौंधी-सौंधी खुशबू छोडती लौकी की तरकारी दाल दी, रोटी का छोटा
सा टुकड़ा तोड़ा, लौकी के साथ उसे छुआया और बेटे के मुह के ओर बढ़ाया।
“जे का है?” गिट्टू ने पूछा
“लौकी! ले खा... बहुत अच्छी होती है”
“नईं... मैं नी खा या (मैं नहीं खा रहा), जे बहुत गंदी
होती है”
“अरे ये बहुत अच्छी होती है... सबसे ज्यादा टेस्टी, ये देख” बेटे
को मनाते हुए गौतमी ने एक कौर खाया।
“हम्म... बहुत टेस्टी है, ले खा एक बार...” पर गिट्टू अड़ियल घोड़े की तरह अड गया और
गाल फुलाकर बैठ गया। इससे पहले कि गौतमी साम-दाम-दण्ड-भेद का अगला दौर शुरू करती, संचित ने
इशारे से उसे रोक दिया और बोले-
“अच्छा अच्छा गिट्टू, मत खा… पर कहानी तो सुनेगा ना?”
“हाँ... शुयूंगा (सुनूंगा)”
“अच्छा देख॥ एक बार एक राजा था... उसे कोई भी अच्छा नहीं लगता था। जानता है उस
राजा का क्या नाम था?”
“का नाम था?”
“उसका नाम था... औरंगजेब!” कहते हुए संचित ने मंत्रमुग्ध हो कहानी सुनते बच्चे
के मुह में लौकी का कौर दाल दिया और कहानी में खोये हुए बच्चे ने कब उस कौर को खा
लिया उसे खुद पता नहीं चला।
“बता क्या नाम था राजा का?”
“औयंगशेब”
“हाँssssssssssss… बिलकुल सही। हाँ फिर पता है क्या हुआ?”
“हाँ... फिल का होया? (फिर क्या हुआ)”
“फ़िर्र? हाँ तो उसे कोई भी अच्छा नहीं लगता था... अपने खुद का बेटा
भी नहीं” कहानी बच्चे के लिए बड़ी रोमांचक थी। कहानी’ में जितना
कौतूहल था, बच्चा उतने ही हुंकारे देता था, और हर
हुंकारे के साथ ‘पप्पा’ एक-एक कौर बढ़ाते जाते थे, और कहानी में
खोया बच्चा सारे कौर स्वाद के साथ खाते जाता था।
“ हाँ तो उसे कोई भी अच्छा नहीं लगता था। फिर एक दिन उसके बेटे ने उसके लिए
बहुsssssssssssत सारे आम भेजे। पीले पीले, सुनहरे, रसीले और
एकदम मीठे... इतने सारे आम देखकर औरंगजेब की लार टपक पड़ी। उसने एक आम उठाया और
उसका रस चूसा। औरंगजेब को बहुत स्वादिष्ट लगा और एक-एक कर वो सारे आम खा गया। उसने
अपने बेटे से पूछा, बेटा ये कौन सा आम है? उसके बेता
भूल गया कि उस आम को क्या कहते हैं, तो उसने बहाना बनाते हुए कहा कि पप्पा, इन आमों का
कोई नाम नहीं है आप ही इनका कोई नाम रख दो। औरंगजेब बोला ठीक है, आज से इस
स्वादिष्ट आम का नाम है- ‘अलफांसो’। और जानता है गिट्टू, मैं भी तेरे
लिए यही आम लाऊँगा... तू खाएगा ना?”
“ खाऊंगाsssssssss” गिट्टू बहुत ही उत्साहित स्वर में बोला, इस बात से बिलकुल अंजान की जिस लौकी की सब्जी से
नाक-भौं सिकोड़ता है, उसी के साथ उसने डेढ़ रोटी खा ली है।
“पल आप कब याओगे अप्पांचो?” गिट्टू ने अधीर होते हुए पूछा
“बहुत थोड़े से दिन में”
पिता का आश्वासन पा गिट्टू जल्द ही शांति
से मच्छरदानी की झीनी सी चादर से तारों को देखता हुआ सो गया। संचित और गौतमी भी
जल्दी ही खाना खा लेट गए और धीमे स्वर में बातें करने लगे
“आज फिर बात की थी एडिटर से तनख्वाह की। कहता है संचित मियां सब्र करो... सब्र
का फल मीठा होता है...” संचित शून्य में ताकते हुए बोले।
“फिर? क्या कहता वो पाजी?”
“फिर वही हमेशा की डिप्लोमेसी... कहता फिर बात करेंगे“ संचित सांस छोडते हुए
बोले।
“पता नहीं कभी उस सुलक्षण कुमार की तंख्वाह तो आज तक डिले नहीं की। हमेशा उसी
की तारीफ में कसीदे काढ़ता रहता है... कहता है सुलक्षण से लिखना सीखो।“
“सुलक्षण कौन?”
“अरे वही जो थर्ड पेज पर सनसनीखेज किस्से लिखता है... ‘अवैध
सम्बन्धों ने ली 5 की जान’, ‘प्रेमी के चक्कर में पति और भाई को जहर दिया’ वाला। और यही
नहीं... वो नालायक डॉक्टर भी है... जानती हो, क्या आर्टिकल
लिखता है सुलक्षण आज? सुलक्षण ने आज विशेष आर्टिकल लिखा था- ‘आम के औषधीय
गुण, जिसमे सुलक्षण साहब ने ये भी बताया है पुराने जमाने में राजा ‘अलफ़ानसों’ आम बहुत खाते
थे... मर्दानगी बढ़ाता है ये आम। मर्दानगी माई फुट”
“अरे आप गुस्सा मत होइए। Writing, like
love, is a matter of courage! आप ही कहा करते थे कॉलेज में। अपने प्यार को मत हारने दीजिये... वही लिखिए जो
आपका दिल कहे... आप अपनी कलम में बिना अलफ़ानसों खाये भी बहुत मर्दानगी है” गौतमी
मुसकुराते हुए बोली।
दिल की भड़ास निकालकर और गौतमी
की मुस्कान पर अपना गुस्सा पिघलाकर, संचित होठों पे
मुस्कुराहट लिए सो गए।
(2)
“संचित बाबू! साहिब बुलाते हैं” आजम मियां का अटेंडेंट आकर
संचित को बोला। संचित ने घड़ी में देखा, साढ़े नौ बज रहे थे। इतनी सुबह-सुबह बुलाया जाना उसके समझ नहीं आया। संचित विचारमग्न
अटेंडेंट के पीछे पीछे चल पड़े।
“अंदर आ जाऊँ सर?”
“हाँ हाँ आओ संचित... बैठो” आजम मियाँ संचित को बैठने का
इशारा करते हुए बोले। सुलक्षण कुमार भी वहीं मौजूद था।
“देखो संचित ये पढ़ो... सुलक्षण साहब ने लिखा है। देखके नहीं
लगता किसी 5वीं क्लास के बच्चे ने लिखा है? ये देखो, ‘मरम्मत’ को ‘मुरम्मत’ लिखा है... ‘आपत्तिजनक अवस्था’ को ‘विपत्तिजनक अवस्था’ लिखा हुआ है... कैसे होगा इससे? भाई सुलक्षण जी आप एक काम करिए... अपना इस्तीफा रखिए इस टेबल पे और दफा हो
जाइए। ऐसी घटिया हिन्दी लिखने वालों से तो हो ली पत्रकारी। जाइए अपना इस्तीफा
भिजवा दीजिये। वैसे भी तुम्हारे अश्लील आर्टिकल्स से अखबार की इमेज स्टेशन छाप
मस्तराम की होती जा रही है। गेट आउट”
सुलक्षण साहब चुपचाप उठे और सहज भाव से चलते हुए बाहर निकल
गए।
“अच्छा संचित! हमने तुम्हारी पिछली तनख्वाह जारी करने को
बोल दिया है”
“ध... धन्यवाद सर” संचित को जैसे विश्वास ही नहीं हुआ।
“अच्छा सुनो! हम मज़ाक नहीं कर रहे थे। बस अब हम सुलक्षण को
निकाल रहे हैं। बड़ा ही नालायक आदमी है... हिन्दी लिखने का शऊर है नहीं, फूहड़ चकल्लस लिखकर पत्रकार बना बैठा है। अब तुम ऐसा करो कि
पेज-3 के आर्टिकल तुम ही लिखो। ठीक है? जाओ फिर जुट जाओ काम पे। सुलक्षण ने बहुत कालिख पोती है... चंबल वाणी का नाम
सम्हालो बेटा” आजम मियां भावुक से होकर बोले।
“जी सर! मैं भरसक कोशिश करूँगा कि आपकी महरबानी के काबिल
बनूँ... शुक्रिया सर” कहकर संचित बाहर निकल आए।
संचित बहुत उत्साहित थे कि पेज-3 पर अब एक कबीर के ऊपर
श्रंखला लिखनी है... फिर नए सिनेमा के बारे में भी कुछ छापना है। तभी आजम मियां का
अटेंडेंट आया।
“साहब ने ये कागज भेजा है।” अटेंडेंट एक पर्ची बढ़ाते हुए बोला।
“ठीक है” संचित बोले।
संचित ने कागज पढ़ा तो दंग रह गए। कागज में लिखा था- “पास के
भुसावली गाँव में एक औरत ने बेटे की चाह में 3 लड़कियों की बलि दी है... नया
आर्टिकल चाहिए, थोड़ा मसालेदार, शाम की प्रैस में जाना है।“
“ये क्या है” संचित मुंह ही मुंह में बुदबुदाये। तभी बगल
में खड़े सुलक्षण की ज़ोर ज़ोर से हसने की आवाज़ से वो चौंक गए।
“अरे संचित मियां! बड़े भोले बाबा हो तुम तो। तुमको क्या लगा, वो स्याणा कौवा तुम्हें मुंशी प्रेमचंद बनाने के लिए पेज-3
का चार्ज दे रहा है?
संचित प्रश्न भरी नज़रों से सुलक्षण को देखते रहे।
“अरे भाई,
मुझे दैनिक सवेरा से ऑफर आई थी... मैंने हामी भर दी... जाने इस कौवे के पास कहाँ
से खबर आ गयी। मेरे रिज़ाइन करने से पहले ही मुझे निकाल दिया।“
“तो फिर तुम्हारी जगह मुझे क्यूँ दी?” संचित सकपकाते हुए बोले।
“भाई बता तो दूँ, पर बुरा मत मानना दोस्त। देखो पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई अगर 3 महीने
बिना तनख्वाह के काम करे तो कोई बुड़बक भी समझ जाएगा कि या तो जनाब आदर्शवादी हैं
जो अखबार छोडकर जाते नहीं और या फिर इतना नालायक कि दूसरा अखबार वाला पूछता ही
नहीं... तुझको और नहीं, और
मुझको ठौर नहीं।“ सुलक्षण बगल में खड़े ऑफिस के एक दूसरे पत्रकार को ताली मार, मनचलों की तरह खीसियाँ निपोरते हुए बोला।
संचित की आँखों के सामने जैसे तारे चक्कर खा गए। वो तमतमाते
हुए आजम मियां के केबिन में घुस गए।
“सर ये छिछोरा काम मुझसे नहीं हो पाएगा”
आजम मियां का भेजा हुआ कागज उनके सामने फेंककर बोले।
आजम मियां बिना कुछ बोले चुपचाप संचित को देखते रहे, फोन उठाया और संचित से आँखें हटाये बिना रिसीवर में बोले-
“हाँ गुप्ता जी। संचित की तनख्वाह अभी रिलीज नहीं करना”।
“हाँ तो क्या फरमा रहे थे मियां आप?” क्रूर निगाहों से देखते हुए आजम मियां बोले।
“सर मैं कह रहा था, कि ये छिछोरी चीजें मैं नहीं लिखूंगा” संचित ने भी तड़प कर उत्तर दिया।
“देखो संचित मियां... अखबार और रोजीरोटी, भावनाओं और आदर्शों से नहीं चलते। आज शाम तक या तो ये
आर्टिकल इस टेबल पर होना चाहिए या फिर तुम्हारा त्यागपत्र...And remember, writing is a business and just like
business it is a matter of profit” आजम अपनी पैनी आँखों से
घूरते हुए बोले।
“No sir you are wrong. Writing is a matter of courage” संचित स्थिर स्वर में बोले।
संचित सिंह भी स्वाभिमान को सर पर धारण किए हुए ऑफिस से
निकल आए और घर की ओर चल दिये। धर्म अधर्म के प्रलोभनों को ठुकराकर जा रहा था, संचित के शरीर का एक एक रोआं देव-प्रतिमा सा पवित्र हो गया
था...शैतान कहीं बैठा संचित की दुर्गति पर अट्टाहास कर रहा था और देवता जैसे मूक
दर्शक बने धर्म-अधर्म का ये युद्ध अपलक देख रहे थे। अधर्म बवंडर का रूप धरे तांडव
मचा रहा था लेकिन संचित के हृदय में धर्म ज्योति निष्कंप जल रही थी।
(3)
संचित घर के पास पहुंचे तो देखा कि गिट्टू घर के बाहर पड़ोसी
के बेटे अभिनव के साथ खड़ा हुआ था। अभिनव आम खा रहा था और गिट्टू अपलक उसे देख रहा
था। संचित के अंदर से जैसे कोई घाव सा छिल गया। संचित जानते थे कि अभिनव जानबूझ कर
गिट्टू को दिखाते हुए आम खा रहा था।
कहते हैं कि परमात्मा जब किसी की परीक्षा लेता है तो देखता
नहीं कि अति हो चुकी है। संचित ने देखा कि गिट्टू ने अनुनय के भाव से अभिनव की ओर
हाथ बढ़ाया और उसने गिट्टू के हाथ में आम का झूठा छिलका थमा दिया।
बच्चे ने सहज भाव से वह छिलका ले लिया और आँखों में तृप्ति
लिए उसे खाने लगा। बाजार के पके हुए आम का छिलका भी बच्चे की कल्पना के अलफ़ानसों
सा मीठा था।
संचित की आत्मा ने जैसे रक्त-वमन किया.... उनका सर चकरा रहा
था... जी होता था कि धरती फट जाये और वो उसमे समा जाएँ। उन्हें पहली बार भान हुआ
कि जिन आदर्शों को वह जनेऊ समझे गले में पहने रहे वह उनकी संतान के स्वाभिमान की
फांसी बन चुका है।
वह किसी बाज की तरह झपटे और गिट्टू की बांह पकड़े घर के अंदर
ले आए... गिट्टू को भी आभास हो रहा था कि उससे कुछ बहुत गलत हो गया है और वह उनकी
पकड़ में बंधा ऐसे चला आ रहा था जैसे कोई घायल साँप चील की चोंच में लटका रहता है।
घर के अंदर आते ही संचित का दमित क्षोभ गिट्टू के ऊपर बरसने
लगा... वह जैसे चेतनाशून्य जीव की भांति गिट्टू को पीटे जा रहे थे। बालक भी रुलाई
रोके, किसी गरीब किसान की तरह मार खाता रहा।
“अरे! अरे! क्या हुआ?” गौतमी रसोई से दौड़ती हुई बैठक में आईं और गिट्टू की बांह संचित से छुड़ाते
हुए प्रश्नवाचक निगाहों से पति को देखती रही।
“अरे हुआ क्या? कुछ बताएँगे या बच्चे को यूं ही मारते रहेंगे”
“इस हटाओ यहाँ से.... और तुम भी अंदर जाओ” संचित दमित
आक्रोश के आँसूओं को गले में ही पीते हुए बोले। गौतमी गिट्टू को लेके अंदर चली
गईं।
पुरुष अपने आदर्शों के लिए लाख चोटें खाते हैं, करोड़ों दुख झेलते हैं और उनका पौरुष पर्वत सा अडिग रहता है
लेकिन संतान की मजबूरी का दृश्य उस पौरुष की जड़ें हिला डालता है। राणा प्रताप बेटी
को घास की रोटी खाते देख अकबर का दासत्व को स्वीकारने चल दिये थे, द्रोणाचार्य अश्वत्थामा को आटे का घोल पीते देख
ब्राह्मणत्व के आदर्शों को ठुकरा कौरवों के कर्मचारी बन गए थे और आज संचित के अंदर
का पिता संतान की सुविधाओं के लिए अपने आदर्शों का गला रेतने को तैयार हो गया था।
संचित ने घड़ी देखी... डेढ़ बज रहे थे। हर हाल में आर्टिकल
पूरा कर दफ्तर में 5 बजे तक पहुंचा देना है। संचित उठकर अपनी टेबल पर जम गए और सधे
हुए हाथों से लिखना शुरू किया- “पिछली रात को जिले के भुसावली गाँव में एक औरत ने
वामाचारी पद्धति का पालन करते हुए अपनी सगी बेटियों की बलि दे दी।
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उस स्त्री ने अनुष्ठान के बाद बेटियो का जिगर भी
खाया। कहा जाता है.... “
जब आर्टिकल खत्म हुआ तो तीन बज रहे थे। वो आर्टिकल के कागज को
तह करने ही वाले थे कि कमरे में गौतमी ने गिट्टू के साथ प्रवेश किया। गिट्टू अपनी
बड़ी-बड़ी आँखों से टुमुक- टुमुक कर देखता हुआ उनकी ओर बढ़ रहा था। उन मासूम आँखों को
देखते ही संचित की आँखें भर आई... उन आँखों की निष्कलुषता से खुद को छिपाते हुए
संचित दूसरी ओर देखने लगे।
गौतमी ने टेबल पर रखे हुए कागज को पढ़ना शुरू किया और पल भर
में सारी स्थिति उसके सामने साफ हो गयी। पति-पत्नी की नज़र मिली... नजरों में पलते
विश्वास का सहारा पा, स्वाभिमान की बेल फिर
खड़ी होने लगी।
गौतमी ने टेबल पर रखा आर्टिकल उठाया और उसे तार-तार फाड़
डाला। गौतमी ने वो टुकड़े डस्टबिन में फेंक दिये... और संचित का चेहरा अपनी
हथेलियों में थामकर एकटक देखती हुई बोली- “Like love, writing is a matter of courage…or perhaps even
more so.”
संगिनी के हाथों का मैत्रीपूर्ण
स्पर्श पाकर संचित का दुख जैसे आँखों से फूट पड़ा... वे बच्चों की तरह सिसकियाँ
लेने लगे। पिता को रोते देख बच्चा भी उदास होकर बोला- “पप्पा छौली! अब मैं कभी आम
नीं खाऊँगा”।
उस साक्षात भोलेपन की प्रतिमा की
तोतली आवाज़ सुन संचित ग्लानि से भर उठे और मन ही मन बोले- “बेटे मुझे क्षमा
करना... मैंने इस अधर्म की कमाई से खरीदी रोटी तुम्हें खिलाने की बात सोची”।
तीनों घनिष्ठ मित्रों की तरह एक
दूसरे को सहारा दे रहे थे... इस दिव्य मैत्री की साक्षी थी तो बस धरती, जो
पश्चाताप और प्रेम के आँसूओं के गिरने से गोपीचंदन सी पवित्र हो गयी थी।
(4)
संचित हाथ में एक तह किया हुआ कागज
लेकर आजम मियां के दफ्तर में घुस गए और टेबल पर उनके सामने रख दिया। आजम मियां ने
वो कागज खोलकर पढ़ा और पढ़ते ही अजाब-ए-इलाही से बरस पड़े। बेमुरोवत! नालायक़! क्या
कहना चाहता है तू कि हमने अपनी ‘नात’ किसी से चुराई है? निकाल यहाँ से
हरामजादे! एक पैसा नहीं’ दूँगा तुझे!
पूरे ऑफिस में आजम मियां की
गालियां गूंज रहीं थी। आजम मियां की टेबल पर वो कागज अभी भी रखा हुआ उन्हे चिढ़ा
रहा था... और उस कागज में लिखे शब्द उनके जेहन में किसी नश्तर की तरह चुभ रहे थे-
“ कविता लई बनाय के,
इत-उत अक्षर काट।
कहे कबीरा कब तक जिये, जूठी पत्तल चाट॥“
संचित मुसकुराते हुए दफ्तर से बाहर
आ गए। उनके कदमों में आज हवा का सा हलकापन था।
शाम के 6 बज रहे थे। ऑफिस
के बाहर अक्षय तृतीया का जुलूस निकाल रहा था।
“अखिल ब्रह्माण्ड नायक भगवान
परशुराम की जय” भीड़ ने नारा लगाया।
सचित को हंसी आ गयी... ब्राह्मणों
को भगवान भी ब्राह्मण ही चाहिए था। जिन पुरखों ने राम-नाम के सहारे उदर पोषण किया
था, उनकी संतानों के लिए विजातीय राम पर्याप्त नहीं थे।
जुलूस के निकलने तक संचित सड़क के
किनारे खड़े रहे और जब जातिवादी जुलूस उन्मादी नारों के साथ निकल गया, वे
भी घर की ओर धीमे कदमों से चलते रहे। सड़क से तभी आजम मियां की गाड़ी निकली और उनके
बिलकुल बगल से निकल गयी... अगर सही मौके पर वो छिटक ना जाते तो थोड़ी बहुत टक्कर
अवश्य लगती। संचित को विश्वास नहीं हुआ की आजम मियां यहाँ तक नाराज़ थे कि उन्हें
शारीरिक चोट पहुचाना चाह रहे थे। वे अपनी चाल से चलते रहे।
कोई 15 मिनट बाद आगे जो द्रश्य
मिला बड़ा ही विचित्र था। पूरी सड़क सुनसान थी... एक सफ़ेद गाड़ी टूटी-फूटी खड़ी थी और
उसके आगे भगवान परशुराम की मूर्ति जो जुलूस के पीछे पीछे लायी जा रही थी। संचित
दौड़कर आगे बढ़े तो पाया कि आजम मियां की सफ़ेद फिएट थी और उसी जार-जार गाड़ी के बगल
में लहूलुहान आजम मियां सड़क पर औंधे मुँह गिरे हुए थे। संचित ने इधर उधर मदद के
लिए देखा... सड़क एकदम सुनसान थी। हारकर संचित ने आजम मियां को पलटा। मियांजी की
हालत बड़ी ही दर्दनाक थी... कपड़े थोड़े थोड़े फटे हुए थे और उन उधड़नों से लहूलुहान
खाल झांक रही थी... होंठ बीच में से चिरा हुआ था और सामने के दाँत नदारद थे।
संचित कुछ करने का सोचते, तभी
बगल की बंद गुमटी से एक दबा हुआ स्वर आया।
“अरे भाईसाहब! सुनिए इधर आइये।
कहाँ चक्कर में फँसते हैं। मरने दीजिये हरामी को।“ गुमटी की ओट में बैठा दुकानदार
बोला।
“प... पर ये हुआ क्या?”
“अरे साला पीछे से हॉर्न दे रहा
था। अब भाई तुम कितने ही वीआईपी बने रहो, जुलूस थोड़े ही ना हटेगा। बस
मुल्ला भड़क गया... कहता “काफिर कहीं के!” भीड़ में से किसी ने सुन लिया... और पूरी
भीड़ ने दे मार... दे मार, औरत के पेटीकोट सा धो डाला। अरे 10-15 तो हम भी
चांपे कटुआ साले को... “
संचित ऐसे धर्मांध ना थे कि मजहबी
जज़्बात में बहकर इंसानियत भूल जाते... वे आजम मियां को उठाकर अस्पताल पहुचाने के
लिए बढ़े। तभी उनके सामने बिजली सी कौंधी और अपने बेटे का जूठा छिलका खाता हुआ
मासूम चेहरा याद आ गया। उनको जैसे झटका सा लगा और वो छिटककर खड़े हो गए। जिस पापी
के कारण उनके परिवार की फाँके करने की नौबत आ गयी थी, वे उसकी सहायता
कैसे करते? संचित ने मुँह मोड़ा और चुपचाप अपने रास्ते चल पड़े। अपनी
होने वाली जीत की अपेक्षा में शैतान की मुस्कुराहट नीले अंधेरे के रूप में आकाश
में फैल रही थी।
जब असुर मन अपने क्षुद्र तर्कों से
हमें जीतने वाला होता है, तब आत्मा का एक छोटा सा प्रश्न हमारी धर्मबुद्धि को
जगाने को काफी होता है।
“तुम्हारा बेटा तुम्हारे जीते जी
जूठे छिलके खाता है... आजम के मरने के बाद उसका बेटा क्या खाने को विवश होगा।“
प्रश्न से संचित सहम गए... आँखों
के सामने अपने बेटे की शक्ल फिर से आ गयी। वही शक्ल उनके पैरों की सांकल बन गयी।
वे मुड़कर फिर से आजम मियां के पास
पहुंचे । आजम को उन्होने उठाया और मन ही मन प्रार्थना करते हुए अस्पताल की ओर जाने
लगे।
उनके मन से बार बार एक ही स्वर
उठता था- “धन्यवाद प्रभु, आज जो मेरी आत्मा का पतन आपने बचाया”
उधर आजम मियां भी मन ही मन आधी
बेहोश आँखों से देखते थे कि खुदा ने उनकी मदद को एक फरिश्ता भेज दिया था... और उस
फरिश्ते की शक्ल बड़ी पहचानी सी थी।
(5)
अस्पताल
की घड़ी में साढ़े आठ बज रहे थे। बाहर धुंधलका उतर चुका था। आजम मियां का परिवार और
ऑफिस के अकाउंटेंट गुप्ता जी भी स्पेशल वार्ड में पहुँच चुके थे जहां आजम मियां भर्ती थे।
आजम मियां ने कंपकंपाती हुई आँखें
खोली... सामने संचित को बैठा पाया। कुछ क्षणों टक यूं ही वे शर्मिंदा निगाहों से
बैठे रहे। फिर धीरे से अपने हाथ जोड़े और आँसू भरी आँखों से संचित को देखते रहे।
“हमें माफ कर दो” आजम टूटी आवाज़
में संचित से बोले।
“अरे कैसी बात करते हैं सर?”
संचित आजम मियां के हाथ थामते हुए सहज भाव से बोले। वे समझ गए कि जब तक वे यहाँ
रहेंगे आजम मियां को पश्चाताप होता रहेगा।
“अच्छा अब मैं चलूँगा...” घर पर
फोन भी नहीं कर पाया और वे अस्पताल से बाहर निकाल गए।
संचित हल्के चित्त के साथ घर की ओर
बढ़ रहे थे। रास्ते में सड़क के किनारे फेरी वाले खड़े थे। संचित ने सोचा की गिट्टू
के लिए कुछ ले लिया जाये। वे फेरी वाले के पास पहुंचे।
“आम कैसे दिये हैं?”
संचित ने पूछा
“बाबूजी ये तोतापुरी 10 रुपये किलो,
दसहरी 22 रुपये किलो, लंगड़ा 40 रुपये किलो हैं, ये सफेदा 50 रुपये
किलो”
“और ये अलफाँसो?”
“ये बाबूजी 80”
“एक किलो तोल दो”
“किलो नहीं बाबूजी... ये 80 का एक
है” फेरीवाला धीरे से बोला।
संचित सकपका गए। जेब में हाथ डाला
तो बस 150 रुपये थे...
“अच्छा ऐसा करो आधा किलो दसहरी तोल
दो ”
“जी बाबूजी” कहकर फेरी वाले ने तोलना शुरू किया और भलमनसाहत
में 50 ग्राम ज्यादा तोला।
संचित घर पहुचे तो 9 बज चुके थे।
घर के दरवाजे पर खटखटाया... गौतमी ने द्वार खोला।
“कहाँ रह गए थे आप?”
गौतमी ने घबराए स्वर में पूछा।
“अरे वो सब बाद में...बहुत भूखा
हूँ...नहाने जा रहा हूँ... खाना लगा दो और हाँ, ये कुछ आम लाया
हूँ पानी में ठंडे करने दाल दो।“ कहकर संचित नहाने चले गए।
संचित नहाकर आए तो देखा थाली लग
चुकी थी। एक कटोरी में हींग-जीरे का छौंक लगी हुई अरहर की दाल थी,
रोटियाँ, पुदीने की तीखी चटनी और प्याज का सलाद। संचित भूख से अधीर
होकर बच्चों की तरह सिर्फ तौलिया लपेटे खाने बैठ गए। एक कौर तोड़ा,
चटनी से छूआया और दाल में डुबोकर मुंह की ओर बढ़ाया।
पर इससे पहले की कौर मुंह में
पहुंचता, दरवाजे पर खटखट हुई। गौतमी संचित को हाथ से बैठे रहने का
इशारा करते हुए, गिट्टू को साथ में लिए दरवाजे की ओर बढ़ीं।
“अरे भीतर आइये भाभीजी...ये आजम सर
की मिसेज हैं” गौतमी को परिचय कराते हुए संचित बोले।
“भाईजान भीतर नहीं आ सकूँगी...
गुप्ता जी ने मुझे बताया कि ‘इन्होंने’ आपके साथ बड़ा जुल्म किया है। बस
उन्ही जुल्मों की माफी माँगने आई हूँ... ये लीजिये आपकी पिछले 3 महीने की तनख्वाह
और अगले महीने की पेशगी भी... ‘इन्होने’ कहलवाया है कि जल्दी से जल्दी काम
पर वापस आ जाइए और अगर हो सके तो उन्हे माफ भी कर दीजिएगा... आप को खुदा का
वास्ता। अच्छा भैया खुदा हाफ़िज़! .... और हाँ ये बच्चे के लिए कुछ सामान है” अपने
हाथ का थैला दहलीज पर छोड़ मिसेज आजम चली गईं।
संचित ने थैला हाथ में उठाया,
दरवाजा बंद किया और अंदर आ गए।
“जे झोले में वो आंटी मेये यिए का
याये? (मेरे लिए क्या लाये?)
“अच्छा देखते हैं” गौतमी ने थैला
खोला...
थैले में से सबसे ऊपर मिठाई के दो
डब्बे थे.. उसके बाद चॉकलेट के पेकेट... और उसके नीचे थे-
“आssssssssssssम!”
गिट्टू ने किलकारी भरी।
और तभी बिजली चली गई।
संचित और गौतमी चटाई मच्छरदानी और
खाना लेकर छत पर पहुचे।
ठंडी-ठंडी सी हवा चल रही थी...
आकाश में तारे आज कुछ ज्यादा ही रोशनी से चमक रहे थे। ऐसी तारों की छत के नीचे
परिवार ने खाना खत्म किया और एक-एक आम उठा लिया... तीनों जन बेसब्री से आम खा रहे
थे... तीनों के चेहरे पर अलौकिक संतुष्टि थी जो देवताओं को भी अपने दिव्य भोजन से
नहीं मिल सकती थी।
“जानती हो... ये अलफ़ानसों आम है”
संचित अपने आम से समय निकालकर बोले।
“अरे छोड़िए ना... कोई भी हो... “
गौतमी बोली
“अप्पांचो” गिट्टू ने किलकारी भरी
और और उसके मुंह से आमरस की कुछ बूंदें टपक कर जमीन पर गिर पड़ीं...
और चारों ओर मौजूद अद्रश्य देवता
अपने देवत्व की गरिमा भुला रस की उस बूंद को चखने झपट पड़े....
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Picture Courtesy: The Writer,by Justin Harris (Acrylic,oil, pencil and pastel on canvas)
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A nice read.
ReplyDeletethanks Tarun!
DeleteAmazing man. Great.
ReplyDeleteThanks Nikhil!
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